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कविता

बच्चों का देश

घनश्याम कुमार देवांश


एक बच्चा सड़क पर अखबार उठाते समय कार
के नीचे आ गया और चल बसा
जबकि उसे उम्मीद थी कि
अखबार उसे भूखा मरने से बचा लेगा
एक बच्चा स्कूल के बाहर ग्रिल
पर अपना माथा टिकाए
आखिरी बार देखा गया था
उसकी लाश सुबह कचरे के ढेर में शामिल थी
एक और बच्चा था
जो स्कूल के अहाते के भीतर ही खत्म हो रहा था
हालाँकि लोग उसे पहचानने की कोशिश कर रहे थे
लेकिन इस शिनाख्त के बीच ही
वह भी रूठकर चला गया था
एक प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से
कह रहा था कि भाइयों हमारे यहाँ इतने बच्चे हैं
इतने बच्चे हैं, कि ये बच्चों का देश है
जनता उसकी बात पर ताली बजाने लगी
और मैं सोचने लगा
कि सचमुच हमारे यहाँ कितने बच्चे हैं
इतने कि वे न स्कूल में समाते हैं न बगीचों में
न वे खेल के मैदानों में अटते हैं न मेलों में
वे इतने हैं कि हर कहीं हो गए हैं
कूड़ेदानों में, कचरे के मैदानों में
नालों में, पुलों के नीचे
गटर के भीतर
कुत्तों और सियारों के बीच
हर कहीं
दुर्भाग्य कि वे इतने हो गए हैं
आजकल बच्चे कितने सस्ते हो गए हैं
 


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